Friday, October 19, 2018

करवा चौथ

दिवाकर ऑफिस के काम से चेन्नई गए हुए थे ।
रागी ने स्कूल से आते ही मुझसे पूछा- मम्मा आप आज पूजा कैसे करोगी ,पापा तो यहाँ हैं ही नहीं ।
कोई बात नहीं बेटा पूजा हो जाएगी-मैंने कहा
अच्छा जैसे विन्नी मौसी करती थी,मौसा जी के फोटो की पूजा करके वैसे ही आप करोगे ?
रागी ने अपने दिमाग का घोड़ा दौड़ाया ।
हाँ वैसे ही करुँगी।
अब तुम चलो खाना खा कर फटाफट होमवर्क कर लो कह कर मैंने रागी को चुप करा दिया पर दिमाग में विन्नी घूमने लगी ।
मेरी चचेरी बहन विन्नी के पति आर्मी में थे इसलिए तीज त्योहार में परिवार के साथ कम ही रहते थे ।
हर साल करवा चौथ में हम सब बहनें पूजा करने मायके में ही इकठ्ठा हुआ करती थीं ।
जब हम लोग अपने अपने पति के साथ पूजा कर रहे होते थे तब विन्नी अपने पति की फोटो की पूजा करती थी ।  उसके करवा चौथ की शक्ति ने पति को तो मौत के मुँह से निकाल लिया था जब किसी मुठभेड़ में उनके पेट में गोली लग गयी थी
पर एक छोटी सी असावधानी से हुई दुर्घटना ने विन्नी की इहलीला को समाप्त कर दिया ।
सुबह बच्चों का टिफिन बनाने चली और गैस ख़त्म हो गया तो उसने स्टोव पर आलू उबलने के लिए रख दिया
नीचे फर्श पर स्टोव रखा था ,उसके पास ही खड़ी हो कर आता गूंथने लगी ।
हड़बड़ी में ध्यान नहीं रहा और स्टोव की लौ से उसके गाउन में आग लग गयी ।
सिन्थेटिक कपड़े का गाउन था इसलिए देखते ही देखते आग फ़ैल गयी
बच्चे जब तक उसको बुझाने का प्रयास करते तब तक जला हुआ कपड़ा शरीर में चिपक चुका था।
डॉक्टर्स के बहुत प्रयास के बाद भी उसको बचाया नहीं जा सका ।
बचती भी कैसे उसके लिए तो कभी किसी ने व्रत रखा ही नहीं था ।
औरतें घर-परिवार की धुरी होती हैं ,उनके बिना परिवार बिखर जाता है
पर उनकी लम्बी आयु के लिए कोई विधान समाज में क्यों नहीं बनाया गया।
माँ बूढ़ी भी हो जाती है तब भी पुत्र के मंगल कामना के लिए व्रत करती है, लड़कियाँ भाइयों के लिए व्रत करती हैं ,पत्नी पति की लंबी आयु के लिए व्रत करती हैं ।
माँ बेटी के लिए, भाई बहन के लिए और पति पत्नी के लिए व्रत क्यों नहीं करते हैं ।
ऐसा कुछ नियम रहता तो शायद विन्नी को भी किसी का व्रत बचा लेता ।
यही सोचते सोचते शाम हो गयी और मैं पूजा की तैयारी में लग गयी ।

Thursday, August 2, 2018

आशा

कठिन पथ में
कंटक और पत्थर तो होता है
पर लक्ष्य की परिणीति
रेशम की नरम कालीन होती है
विपरीत परिस्थिति को निराशा नहीं
कर्म की आंधी हटाती है
आशा के सागर का
कहीं कोई तल नहीं होता है
जैसे सूरज के लिए
सारी धरा समतल होती है
वैसे ही इच्छाशक्ति के सामने
गगन भी नतमस्तक हो कर
प्रयास की किरणों से जगमग हो जाता है

Monday, July 9, 2018

गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा
                *********
महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास की जयंती को हम व्यास पूर्णिमा या गुरु पूर्णिमा के नाम से जानते हैं ।

व्यास पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा क्यों कहते हैं ?
महर्षि व्यास ने हिन्दू समाज के स्वध्याय के लिए सभी ग्रंथ सुलभ किए......वेद और पुराण का विश्लेषण कर उसके अलग-अलग विभाग को बाँटा
वेद का विश्लेषण कर उसको मंत्र,ब्राह्मण,आरण्यक और उपनिषदों के रूप में सबको पृथक किया
मंत्र भाग के भी चार भाग किए.....ऋग,यजु,साम और अथर्व
जिनको हम चार वेद कहते हैं,वास्तव में वो वेद के सिर्फ एक अंग हैं ।
पुराण को भी अठारह ग्रंथों के रूप में संकलित कर के साधारण लोगों को वेद तत्व समझाने का काम किया.......इसलिए उनको आदि गुरु मान कर उनकी जयंती पर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा शुरू हुई ।

चुकि गुरु पूर्ण होता है इसलिए पूर्णिमा की तिथि को ही गुरु के नाम किया गया
पहले के समय में गुरु पूर्णिमा की संध्या में वायु परीक्षण भी किया जाता था जिसके आधार पर भावि तेजी-मंदी आदि का निर्धारण होता था ।
अब तो कोई जानता भी नहीं है ।

समय के साथ समाज बदला तो गुरुकुल भी विद्यालय बने और अब स्कूल हो गए हैं
गुरु-शिष्य शिक्षक-छात्र से होते हुए टीचर-स्टूडेंट हो गए ।
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान बहुत ऊँचा था......तभी तो कबीर दास ने कहा था....."गुरु गोविंद दोनों खड़े
                                    काके लागूं पांय ।
                                    बलिहारी गुरु आपने
                                    जिन गोविंद दियो बताय ।।"
आज गुरु-शिष्य परंपरा शिक्षा के क्षेत्र में तो समाप्त ही हो चुका है.....आध्यात्मिक गुरु-शिष्य परंपरा की लकीर अभी भी पिटी जा रही है ।

आज फी दे कर पढ़ने वाले स्टूडेंट्स की दृष्टि में टीचर्स वेतन पाने वाले उनके नौकर से ज्यादा सम्मानीय नहीं होते हैं ।
प्राचीन भारत में आज की तरह विद्या-विक्रय नहीं होता था इसलिए गुरुकुल में राजा-रंक का भेदभाव नहीं था
राजकुमार हों या निर्धन का पुत्र दोनों एक साथ एक ही वृक्ष के नीचे कुश के आसन पर बैठ कर गुरु से शिक्षा लेते थे
निर्धनता किसी की शिक्षा में बाधक नहीं था और किसी को शिक्षा के लिए आरक्षण की आवश्यकता भी नहीं थी

गुरुकुलों का मूल मंत्र " सादा जीवन उच्च विचार "........तप और त्याग उनका उद्देश्य था और लोकहित पर जीवन उत्सर्ग उनका आदर्श
आज स्कूलों में ही हाई-फाई लाइफ और दिखावा सिखाया जाता है......तप और त्याग की जगह सुविधाओं की भरमार और लोकहित की जगह स्वार्थ को आदर्श बताया जाता है
परिणामस्वरूप अब कपिल,कणाद पाणिनि जैसे विद्या के धनी शिष्य नहीं रूबी राय और गणेश कुमार जैसे टॉपर होते हैं

प्राचीन भारत में गुरु-वर्ग के प्रति जो दृढ़ और आपार श्रद्धा शिष्य के हृदय में होती थी उस पर गर्व करने का अवसर गुरु पूर्णिमा देता है
अपनी प्राचीन परंपरा को नमन करें.....गुरु का मज़ाक उड़ाने वाली शुभकामनाएँ न दें

Thursday, August 10, 2017

उपहार

हम बहनों के लिए मेरे भैया
आता है एक दिन साल में
आज के दिन मैं जहाँ भी रहूँ
चले आना वहाँ हर हाल में
हम बहनों के लिए मेरे भैया
आता है एक दिन साल में

कितने दिन और कितनी रैनें
इस आँगन में रहना है मैंने
परदेसी होती हैं बहनें
बाबुल जाने भेज दे मेरी
डोली कब ससुराल में
चले आना वहाँ हर हाल में.........हर साल रक्षा बंधन के दिन रश्मि रमन को यह गाना जरूर सुनाती थी
रमन उसको छेड़ता था- हर साल गाना सुना देती है पर ससुराल नहीं जाती है.......ससुराल जाएगी तब तो आऊँगा
आखिरकार वह दिन भी आया जब रश्मि ससुराल चली गयी......उस साल रक्षा बंधन की प्रतीक्षा दोनों भाई-बहन बेसब्री से कर रहे थे
रमन राखी बंधवाने जाने लगा तब माँ ने एक साड़ी मिठाई का डिब्बा और 500 रुपए उसको दिए.…..रश्मि को देने के लिए
बहन से मिलने की खुशी और अपना वादा निभाने के उत्साह के साथ रश्मि के घर पहुँचा
बहन ने भी खुशी-खुशी राखी बाँधी मिठाई खिलाया और नेग लिया
सब बहुत खुश थे पर थोड़ी देर में ही रमन को माहौल कुछ बदला बदला से महसूस होने लगा......कारण कुछ समझ मे नहीं आया
थोड़ी देर बाद वो वापस अपने घर लौट गया
दिपावली पर जब रश्मि मायके आई तब उसने बातों ही बातों में बताया कि रक्षा बन्धन में उसकी जिठानी के भाई ने जिठानी को सोने की अँगूठी दी थी
इसलिए उसकी सास और ननदें उसको ताना दे रहीं थीं
रश्मि की जिठानी के भाई  का पेट्रोल पम्प था और पिता भी सरकारी नौकरी में थे
जबकि रश्मि के पिता किसान थे और रमन अभी पढ़ाई कर रहा था.....दोनों परिवारों में आर्थिक असमानता थी
न जाने क्यों समाज में व्यक्ति का सम्मान उसकी आर्थिक स्थिति से होता है.....व्यवहार और गुण धन-संपत्ति के सामने बौने साबित होते हैं ।
रश्मि के ससुराल वाले भी इसी मानसिकता के थे इसलिए जिठानी के मायके वालों से तुलना करके रश्मि के मायके वालों का मज़ाक उड़ाते रहते थे
मायका चाहे बुरा ही क्यों न ही पर उसकी शिकायत सुनना किसी भी औरत को सहन नहीं होता है......मुखर होती है तो बोल कर विरोध कर लेती है और अंतर्मुखी होती है तो अंदर ही अंदर घुट कर रह जाती है ।
रमन को रक्षा बंधन वाले दिन के बदले हुए माहौल का कारण अब समझ में आ गया था
रश्मि के संवेदनशील स्वभाव को भी वो जानता था इसलिए उसकी मनःस्थिति को समझ गया
अगले वर्ष रक्षा बंधन के दो दिन पहले ही रश्मि ने फोन करके रमन को आने से मना कर दिया.....बहाना बनाया कि वो लोग कहीं बाहर जाने वाले हैं
माँ-पिताजी ने इस बात को सहजता से लिया लेकिन रमन को विश्वास नहीं हुआ
रश्मि मन ही मन दुखी भी थी और प्रसन्न भी......भाई को राखी नहीं बांध पाने का दुख तो था
लेकिन उपहार का मज़ाक उड़ा कर मायके के बारे में भला-बुरा सुनने से मुक्ति मिलने से प्रसन्न भी थी
रमन ने दोस्तों के साथ घूमने जाने का घर में बहाना बनाया और बिना किसी को बताए रश्मि के घर चला गया
रमन को देख रश्मि की आँखे भर आईं क्योंकि आज खुद को भाई से दूर रख पाना उसके लिए भी मुश्किल हो रहा था
रमन ने माहौल को हल्का-फुल्का करते हुए रश्मि को कहा-अब राखी भी बाँधेगी या बस रोती ही रहेगी.......मुझे भूख भी लगी है जल्दी से राखी बांध और खाना खिला  नहीं तो उपहार भी नहीं दूँगा
होने वाले मान-अपमान को भूल कर रश्मि भी त्योहार की खुशी में खो गयी.....रमन को राखी बांधने की तैयारी करने लगी
राखी बंधवाने के बाद रमन ने रश्मि को जब नेग दिया तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.....
महँगी साड़ी के साथ सोने के टॉप्स रमन के उसके हाथ में पकड़ा कर पैर छुए तो रश्मि भावातिरेक हो कर कुछ बोल ही नहीं पाई
उसकी मनोदशा को समझते हुए रमन ने धीरे से बोला - परेशान मत हो,मैंने अपनी पॉकिट मनी के पैसे बचाए और ट्यूशन करके पैसे इकठ्ठे किए थे
बीस साल तक जो वादा किया था उसको पूरा करने में उपहार को राह का रोड़ा कभी नहीं बनने दूँगा
और अपनी बहन को उसके ससुराल में कभी शर्मिंदा भी नहीं होने दूँगा
यह बोलता हुआ रमन अचानक से बहुत बड़ा लगने लगा रश्मि को
माता-पिता बच्चों को जितना नहीं समझते हैं उससे ज्यादा भाई-बहन एक दूसरे के मन के भाव को जानते समझते हैं
अनकही को जान कर बहन की खुशियों का ख्याल रखना भाई को खूब आता है
क्योंकि बहन की शादी के समय भाई को उसकी खुशियों की ही चिंता ज्यादा रहती है

Thursday, August 3, 2017

रक्षा बन्धन

सड़क पर चलते-चलते मयंक की आँखें बार-बार गीली हो जा रही है.....चुपके से आँसू पोंछ कर चोर नजरों से इधर-उधर देख लेता है......... कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा
पर अजनबियों के शहर में किसे भला फुर्सत थी उसे देखने की
पूरे वर्ष में यही एक दिन होता है जब उसको अकेला होना कष्ट देता था......जब दूसरों की कलाई राखी से सजी हुई दिखती तब अपनी सूनी कलाई बहुत दुख देती थी
हर बार रिश्ते की या मोहल्ले की ही कोई न कोई बहन राखी बाँध दिया करती थी लेकिन आज तो कोई नहीं थी........जो उसको राखी बाँधती
मयंक अपने माता-पिता की एकलौती संतान है.....बहुत लाड़-प्यार में पला-बढ़ा.....उसकी हर इच्छा को पूरा किया जाता था
जब उसने जिस चीज की फरमाइश की वो पूरी हो जाती थी.....माँ और पिताजी दोनों नौकरीपेशा थे इसलिए पैसों की तकलीफ़ नहीं थी
इसके उलट उसके मामा के तीन बच्चे थे और कमाने वाले सिर्फ मामा......वहाँ हर चीज तीनों बच्चों में बाँटी जाती थी
जब मयंक वहाँ जाता था था तब मामी चॉकलेट बिस्किट या मिठाई के चार हिस्से करके देती थी.....इसकी तो आदत अकेले ही पूरा खाने की थी इसलिए वो एक छोटा टुकड़ा लेने से इनकार कर देता था....बाद में मामी को जब पता चला तब वो एक पूरा चॉकलेट उसको देतीं और दूसरे में से तीन हिस्से करके अपने बच्चों को देतीं थीं
मयंक सोचता था,अच्छा है कि मेरा कोई भाई-बहन नहीं है वरना मुझे भी शेयर करना पड़ता
सिर्फ रक्षा बंधन वाले दिन उसको बहन की कमी महसूस होती थी......जब अपने दोस्तों को सज-धज कर राखी बंधवाने की तैयारी करते देखता तब उदास हो जाता था
उसको उदास देख कर माँ आसपास की किसी लड़की को बुला कर राखी बंधवा देती थीं
बड़ा होने लगा तब समझने लगा कि इस राखी से कलाई का सूनापन तो दूर हो जाता है पर मन का सूनापन दूर नहीं होता है
जिस प्रेम से कोई बहन अपने भाई के लिए सैकड़ों राखियों में से चुन कर एक राखी अपने भाई के लिए खरीदती है......भाई के पसँद की मिठाई लाती है.....रक्षा बन्धन की प्रतीक्षा करती है......राखी बांधने के बाद उपहार के लिए लड़ती है....वैसा भाव माँ के द्वारा बुला कर बँधवाई गयी राखी में नहीं होता है ।
ये तो महज खानापूर्ति होता है
ये सब सिर्फ एक दिन की बात होती थी इसलिए रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से वो भी सामान्य हो जाता था
इस साल नौकरी के कारण घर से दूर था.....यहाँ माँ भी नहीं थीं जो उसकी उदासी दूर करने के लिए किसी से राखी बंधवा देतीं
मयंक सोच रहा था काश! एक बहन तो होती जो घर से दूर रहने पर भी राखी भेजती,फोन करती और उपहार के लिए लड़ाई करती...ठीक वैसे ही जैसे उसके मामा की बेटी अपने भाइयों से लड़ती है
हाँ ऐसा सम्भव तो था यदि माँ-पिताजी ने बेटे की चाहत में उसके जन्म के पहले दो कन्याओं की भ्रूण-हत्या नहीं की होती तो......दूसरी तरफ उसके मामा के यहाँ बेटी की चाहत में दूसरा बेटे का जन्म हो गया तब उन्होंने एक लड़की गोद ले ली
उनके बच्चे भाई और बहन दोनों का प्यार पा रहे हैं.....जीवन के सभी रंगों का आंनद ले रहे हैं
मयंक को भौतिक सुख तो बहुत मिला लेकिन भावनात्मक सुख की कमी हमेशा रही और पूरे जीवन रहेगी
माता-पिता के जाने के बाद उसके ऊपर कोई जिम्मेदारी या आर्थिक भार तो नहीं रहेगा पर भावनात्मक संबल देने वाला भी कोई नहीं होगा
भविष्य की भयावह कल्पना ने मन को झकझोर दिया.....परिणामस्वरूप उसने निश्चय कर लिया कि जो कमी उसके जीवन में है वो अपने बच्चों के जीवन में नहीं होने देगा
जब उसकी शादी होगी तब अपने बच्चे के साथ एक बच्चा गोद लेगा.....यदि पहले बेटी हुई तो एक लड़का गोद ले लेगा और लड़का हुआ तो एक लड़की गोद ले लेगा
घर मे बेटे और बेटी दोनों की किलकारियाँ गूँजेंगी.....भाई-बहन की नोकझोंक भी होगी....पिता के प्रति बेटी का लगाव और माँ का बेटे के लिए झुकाव भी होगा......जीवन के हर रस का स्वाद मिलेगा......ना रक्षा बंधन पर भाई की कलाई सूनी रहेगी न भाई दूज पर बहन सूनी आँखों से टिका की थाली को देखेगी

शगुन

रौनक ने ऑफिस से आते ही माँ के सामने दो लिफाफे रख दिए और खुशी से चहकते हुए कहा....खुशी दी और रिनी की राखी आ गई
माँ ने लिफाफा खोल कर बहुत गौर से दोनों राखियों को देखा
राखी लिफाफे में रखती हुई बोलीं....खुशी की राखी तो सस्ती सी है.....रिनी की महँगी वाली है
तू ऐसा करना खुशी को पाँच सौ एक रुपये भेज देना और रिनी को इक्यावन सौ एक
बड़े घर में बेटी ब्याही है तो उनके हैसियत के हिसाब से  ही व्यवहार भी करना पड़ेगा
खुशी के लिए तो पाँच सौ भी बहुत है.......माँ अपनी ही धुन में बोलती जा रहीं थीं
उनकी बात सुन रौनक हैसियत और रिश्ते के समीकरण को सुलझाने में उलझ गया
बड़ी बहन की शादी एक साधारण परिवार में हुई थी क्योंकि उनकी शादी के समय रौनक के पिताजी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी
और जीजाजी एक छोटी सी कंपनी में क्लर्क थे
छोटी बहन के ससुराल वाले जाने-माने व्यवसायी थे.....बहनोई एमबीए करके पारिवारिक व्यवसाय को संभाल रहे थे
शहर के पॉश एरिया में बँगला है......महँगी गाडियाँ और सभी आधुनिक सुख-सुविधाएं उनलोगों को उपलब्ध हैं
आर्थिक स्थिति भले ही आसमान हैं पर दोनों से रौनक का रिश्ता तो एक ही है
दोनों ही एक ही माता-पिता की संतानें हैं.......अमीर घर में ब्याही हो या गरीब घर में पर रौनक तो दोनों का ही भाई है
राखी भेजने में जैसा प्रेम और उत्साह खुशी दी के मन में रहा होगा वैसा ही रिनी के मन में भी होगा तो उपहार या शगुन में भेदभाव क्यों करना.....रौनक समझ नहीं पा रहा था
रिश्ते दिल से बनते हैं पर निभाने के लिए हैसियत देखी जाती है.......ऊँचा पद और मोटा बैंक बैलेंस प्यार एवं भावनाओं पर भारी पड़ता है
मन में उठे विचारों के झंझावात ने रौनक को आज एक नई राह दिखाई
उसने निश्चय किया खुशी दी और रिनी के शगुन में भेदभाव करेगा......माँ के कहे अनुसार रिनी को पाँच हजार एक का शगुन भेजेगा पर दीदी के लिए एक हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी लेगा
अब से हर वर्ष उनकी किसी ऐसी जिम्मेदारी का भार वह स्वयं लेगा जिसकी उनको आवश्यकता तो है पर उसको पूरा करने में असमर्थ हैं
रिनी सम्पन्न है उसको सहायता की आवश्यकता नहीं है पर दीदी को आवश्यकता है
उनदोनों ने तो राखी भेज कर अपना कर्तव्य पूरा किया अब बहन की रक्षा का कर्त्तव्य पूरा करने की बारी उसकी थी............शुरुआत स्वास्थ्य की रक्षा से करेगा

Wednesday, June 14, 2017

अधूरी कहानी

भूली बिसरी यादें राख की परत में दबी आग जैसी होती है
ऊपर से सब कुछ समाप्त हुआ दिखता है पर कुरेद दो तो जलता हुआ अंगारा हाथ जला देता है।
राकेश की शादी में श्रुति को देख कर एक पल के लिए विश्वास ही नहीं हुआ कि सामने दिखने वाली औरत श्रुति ही है
श्रुति ???
नहीं-नहीं.....वो यहाँ कैसे आ सकती है...मैंने खुद को समझाते हुए खुद से ही कहा और सर झटक कर आगे बढ़ गया
पर नज़रें बार-बार उसको ढूँढने लग रही थीं......
दोस्तों के साथ बात करते हुए भी दिमाग में श्रुति का ख्याल घूम ही रहा था
बाहर से तो दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक करने में व्यस्त था पर मन तर्क-वितर्क में लगा हुआ था
बार-बार पंद्रह वर्ष पहले के समय में लौट जा रहा था.......
श्रुति को अंतिम बार जब देखा था तब वो एक अल्हड़ लड़की थी
आज जिसको देखा था वो एक औरत थी
पर चेहरा-मोहरा और हाव-भाव श्रुति जैसा ही था......शायद श्रुति भी इस उम्र में ऐसी ही दिखती
मन में उधेड़बुन निरंतर चल रहा था
तभी सामने से वो आती हुई दिख गयी.....मैं गौर से उसको देखने लगा
इस बार उसके गोद में एक बच्चा भी था और वो जहाँ मैं खड़ा था उधर ही आ रही थी
उसको अपनी तरफ आता देख कर थोड़ा सा घबरा गया पर तभी सोचा कि मैंने तो कुछ न बोला है न किया है तो घबराना क्या
अभी सोच ही रहा था तब तक वो मेरे पास आ खड़ी हुई और अपने बच्चे को मुझे थमाते हुए बोली- थोड़ी देर रखो इसको ,मैं आती हूँ
आवाज़ सुनते ही कन्फर्म हो गया -श्रुति ही है
बिना मुझसे कुछ पूछे इतने अधिकार के साथ अपने बच्चे को पकड़ाने का साहस उसके सिवा और कोई कर भी नहीं सकता था
उम्र बढ़ गयी पर स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था
वो तो बच्चे को पकड़ा कर जाने कहाँ
गुम हो गई
मैं बच्चे को गोद में लिए हुए सोचने लगा-किसी ने पूछ लिया कि बच्चा किसका है तो क्या जबाब दूँगा
तभी ख्याल आया कि बच्चा थोड़ा बड़ा रहता और पूछ लेता कि आप कौन हैं तो क्या बताता इसको
इसकी मम्मी तो शायद मामा हैं बोल देती या अभी भी कहीं बोल दे -मामा को नमस्ते करो
विचित्र धर्मसंकट में फंसा हुआ महसूस कर रहा था
श्रुति एक बार फिर से प्रकट हुई..…..इस बार उसके हाथ मे खाने की प्लेट थी
आते ही बोली- चलो उधर एक टेबल खाली है वहीं बैठ कर बेटे को खाना भी खिला देती हूँ और तुमसे बात भी कर लूँगी
मैं यंत्रवत उसके पीछे-पीछे चल पड़ा
समय की एक लंबी दीवार का भी हम दोनों पर कोई असर नहीं हुआ था
ऐसा लग रहा था जैसे समय का पहिया वहीं रुका हुआ है जहाँ पंद्रह वर्ष पहले था
आज भी वो बोल रही थी और मैं बिना प्रतिकार किए उसकी बातें मान रहा था
इसकी बातें मान कर कैसे-कैसे उल्टे-पुल्टे काम किए हैं
फरमाइशें भी इसकी अजीबोगरीब हुआ करती थीं......एक दिन जिद कर बैठी कि मेरे भैया को आँख मारना सिखा दो
मरता क्या न करता....बात तो माननी ही थी
बस एक शिकायत श्रुति को हमेशा रही.....जब भी किसी लड़की को मुझसे बात करते देखती तब उससे झगड़ा कर लेती......
उसके बाद उससे झगड़ा करने के लिए मेरे ऊपर दबाव बनाती जिस पर मैं इंकार कर देता
अकारण किसी लड़की से लड़ना मुझे पसँद नहीं था
इसके बाद दो-चार दिन नाराज़ रहती फिर खुद ही मान जाती थी
बेटे को खाना खिलाते हुए जो बातों का दौर शुरू हुआ वो हमारे खाने के बाद भी समाप्त नहीं हुआ
ऐसा लग रहा था जैसे मैं राकेश की शादी में नहीं श्रुति से मिलने ही यहाँ आया था
मुझे तो कोई अंदाज़ा ही नहीं था कि यहाँ श्रुति भी मिल सकती है
क्योंकि उसके पापा के शहर छोड़ने के बाद कोई कॉन्टेक्ट ही नहीं रहा ना ही मैंने उसके बारे में पता करने का प्रयास किया
शायद वो मेरे जैसी निर्मोही नहीं थी इसलिए मेरे बारे में सारी जानकारी रखती रही......इस शादी में मैं आनेवाला हूँ इसकी भी खबर उसको थी
इसलिए मुझसे मिलने के लिए ही खासकर वो भी यहाँ आई थी
इस मुलाकात से एक बात तो समझ में आ गयी कि प्यार कभी खत्म नहीं होता है
आकर्षण हर नए व्यक्ति या वस्तु की तरफ खिंचता है पुराने होने के साथ कम होते-होते खत्म भी हो जाता है
जीवन में न जाने कितने लोगों से जान-पहचान होती है दोस्ती होती है
लेकिन समय के साथ अधिकाँश का साथ छूट जाता है बस कुछ ही होते हैं जिनका साथ कभी नहीं छूटता है
ये वही लोग होते हैं जिनसे हमारा दिल मिल जाता है और ये रिश्ते अटूट होते हैं जिसपर समय और दूरी का कोई प्रभाव नहीं होता है
उन्नीस-बीस वर्ष की उम्र में हुआ प्यार.......प्यार कम विपरीत लिंग आकर्षण ज्यादा होता है
श्रुति और मेरा प्यार भी कुछ ऐसा ही था......मेरे लिए तो सिर्फ मस्ती थी लेकिन इस अल्हड़ ने बहुत गंभीरता से ले लिया था
मेरा केयर करने,छोटी-बड़ी सभी इच्छाओं को पूरा करने  के लिए कुछ भी कर जाती थी
आज बात करते हुए जब उसने मेरे शर्ट की तारीफ की तब उसके दिए हुए शर्ट की बरबस ही याद आ गयी
किसी काम से हमदोनों मार्केट गए थे.....वहाँ एक शोरूम में पीटर इंग्लैंड की शर्ट डिसप्ले में लगी थी......मुझे बहुत पसंद आ गयी लेकिन छात्र जीवन में पॉकेट में इतने पैसे तो होते नहीं थे कि महँगी शर्ट खरीदी जा सके
शर्ट देख कर तारीफ करते हुए हम वापस आ गए.....तीन- चार दिनों के बाद वो शर्ट मेरे हाथ में थी
जाने कैसे पैसों का जुगाड़ करके उतनी महँगी शर्ट मेरे लिए खरीद कर ले आई थी
यूँ तो उस पर प्यार भी बहुत आता था पर उसके झक्कीपने पर गुस्सा भी आता था
इन नोकझोंक और रूठने- मनाने के साथ समय बीत रहा था तभी एक दिन श्रुति की माँ को उसके बैग में मेरा फोटो मिल गया
बस उसके बुरे दिन आ गए......माँ-बाबूजी से डाँट पड़ी
इस झक्की ने गुस्से में एक बैग में अपने कुछ कपड़े भरे और मेरे घर पहुँच गयी
उस समय मैं घर में नहीं था पर मेरी माँ के पैर छू लिए और माँ ने प्यार से आवाभगत करके मेरे रूम में बिठा दिया
मैं दोस्तों के साथ बाजार में घूम रहा था तब तक घर में भूकंप आया चुका था जिसकी खबर भी नहीं थी
पड़ोस में रहने वाले बचपन के दोस्त ने दोस्ती का कर्तव्य निभाने के लिए मुझे ढूँढना शुरू किया.......मेरे सारे ठिकानों का उसको पता था.......घूम-घूम कर मुझे ढूँढ रहा था ताकि घर पर आए क़यामत से आगाह कर सके
पर मैं भागता फिर रहा था क्योंकि उसको अपने साथ नहीं ले जाना चाहता था
बहुत मेहनत के बाद उसने मुझको पकड़ा और जब घर के हालात की खबर दी तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई.......आज बाबूजी से जमकर पिटाई हो सकती है ,सोचते ही मैंने नीरज सहित बाकी सभी दोस्तों से उनके सारे पैसे झटके और बाइक से ही बड़े भैया के पास चल पड़ा
उधर बाबूजी ने श्रुति के बाबूजी को बुला कर उनकी बेटी उनके हवाले कर दी
उन्होंने बाबूजी का एहसान माना,जिन्होंने उनकी इज्जत जाने से बचा ली
उसके बाद श्रुति को कोलकाता भेज दिया और कुछ समय बाद खुद भी वहीं चले गए
मैंने तो दो महीने तक घर में शक्ल ही नहीं दिखाई......बाद में बाबूजी का गुस्सा शांत होने के बाद माँ और भाई की सहायता से घर में एंट्री मिली
उसके बाद से तो मानो युग बीत गया......श्रुति ख्यालों से प्रत्यक्ष तो हट निकल गयी थी लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा साथ रही......उससे जो लगाव था वो फिर कभी किसी और लड़की के साथ महसूस ही नहीं हुआ
शायद यह एक कारण है कि कभी किसी के साथ रिलेशनशिप ज्यादा बढ़ी ही नहीं
जीवन में बहुत से अनसुलझे रहस्य रहते हैं जो वक्त किसी घटना के माध्यम से सुलझा देता है ।
श्रुति का अचानक यूँ मिलना न होता तो उसके लिए अपने मन में दबे प्यार को शायद कभी समझ ही नहीं पाता
पर ये समझ भी तब आई जब वक्त निकल गया......